हिमालय की वादियों में, जहाँ पवन देवदार के वृक्षों से सरसराते हुए प्रेमगीत गाते, वहीं प्रजापति दक्ष की कन्या सती पली-बढ़ी। सती की सुंदरता चाँदनी सी शीतल और उनके नेत्र कमल के समान विशाल थे। उनके हृदय में भगवान शिव के प्रति अनन्य भक्ति थी। बचपन से ही उन्होंने अपने तप से शिव को पति रूप में पाने का वरदान प्राप्त कर लिया था।
समय बीतता गया और सती युवा हो गईं। दक्ष ने अपने यज्ञ में सभी देवताओं को आमंत्रित किया, परंतु शिव को नहीं। सती ने अपने पिता से शिव को भी आमंत्रित करने का आग्रह किया, परंतु दक्ष ने शिव के वैराग्य और उनके असाधारण रूप का उपहास उड़ाया। सती के हृदय में गहरा आघात लगा। अपने पिता की अवज्ञा करते हुए, वे अकेले ही शिव के धाम कैलाश पर्वत की ओर चल पड़ीं।
कैलाश की बर्फीली चोटियों पर, शिव समाधि में लीन थे। सती की आहट पाकर उनके नेत्र खुले। सती की आँखों में प्रेम और दृढ़ निश्चय देखकर शिव समझ गए कि यह उनके तप का फल है। उन्होंने सती को पत्नी के रूप में स्वीकार किया।
सती और शिव का विवाह हुआ। कैलाश की वादियाँ देवताओं के मंगल गीतों से गूंज उठीं। परंतु, यह प्रेम कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई। दक्ष, शिव को अपना दामाद स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने जानबूझकर शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया।
सती ने जब यह सुना तो उनके हृदय में एक तूफान सा उठा। वे अपने पति की अनुमति के बिना ही यज्ञ में जाने के लिए अड़ गईं। शिव ने उन्हें समझाने का प्रयास किया, परंतु सती के मन में पिता के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना प्रबल थी।
यज्ञ में पहुँचकर सती ने अपने पिता से शिव का अपमान करने का कारण पूछा। दक्ष ने शिव के विषय में अपमानजनक शब्द कहे। सती का हृदय गहरे दुःख से भर गया। उन्हें लगा मानो उनका शरीर जल रहा है। अपनी आत्मा की पवित्रता बनाए रखने के लिए, उन्होंने यज्ञ की अग्नि में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए।
शिव को जब सती के बलिदान का समाचार मिला तो उनका क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच गया। उन्होंने अपने जटा से वीरभद्र को उत्पन्न किया और उन्हें दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने का आदेश दिया। वीरभद्र ने दक्ष का सिर धड़ से अलग कर दिया।
शिव सती के शरीर को लेकर पूरे ब्रह्मांड में तांडव करने लगे। उनका क्रोध देखकर सभी देवता भयभीत हो गए। अंत में, भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंडित कर दिया। सती के शरीर के अंग जहाँ-जहाँ गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ बन गए।
यह प्रेम कहानी त्याग, बलिदान और अटूट भक्ति की एक अमर गाथा है। यह हमें सिखाती है कि प्रेम की शक्ति सबसे बड़ी है और सच्चा प्रेम कभी मरता नहीं, वह बस रूप बदलता है।